२०१४ का वर्ष भारत के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण सालो में से एक रहा, जब देश की जनता ने भ्रष्ट और भई-भतीजावाद वाली सरकार को जर से उखाड़ कर फेक दिया और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को प्रचंड बहुमत दिया, उस समय की तत्काल सरकार के खिलाफ नाराजगी के पीछे भ्रष्टाचार, मुस्लिम तुष्िकरण, काला धन, बेरोजगरी, भाई भतीजावाद, खराब अर्थ्यवस्था जैसे कई मुद्दे थे और नरेंद्र मोदी ने उन मुद्दों को खूब उछाला और इसका खूब लाभ भी मिला। पूरा चुनाव विकास, अर्थ्यवस्था, कश्मीर, राम मंदिर के इर्द गिर्द रहा और २०१४ और २०१९ दोनों वार प्रचंड बहुमत मिला। हालाकि पिछले ६ वर्षों में सरकार का कार्यकाल निराशा जनक ही रहा, खास करके वो युवा जिन्होंने उन्हे बेरोजगारी के नाम पर सत्ता पिवर्तन किया था, कॉरपोरेट जगत को भी कोई खास लाभ नहीं मिला है। भारतीय अर्थ्यवस्था शीर्षासन की मुद्रा में जा चुकी है, जीडीपी वृद्धि दर नीचे गिरती जा रही हैं, बेरोजगारी चरम पर है और यह सब कोरॉना के कारण नहीं हुआ हैं, २०१७ से अथॆव्यस्था गिरावट दर्ज कर रही हैं।
नोटेबंधी, जीएसटी और गलत आर्थिक नीति अथॆव्वस्था की दुर्दशा के मुख्य कारणों में से एक हैं, भेले ही मोदी दक्षिणपंथी हो लेकिन उनकी आर्थिक नीति पर समाजवाद का अधिक प्रभाव दिखता है, तभी पीएसयू के निजीकरण में सरकार सुस्त पड़ी है, समाजवाद केवल किताबो में अच्छा लगता है, परन्तु हकीकत यह है की की समाजवादी नीतियों ने केवल देश और उसकी अर्थ्यवस्था को बर्बाद ही किया है चाहे वो वेनेज़ुला हो या पूर्व सोवियत संघ। यही कारण है की कोरोावायरस के कारण जब दुनिया भर के कम्पनी अपनी कारखाने चीन से हटाकर दूसरे देशों में लगा रहे हैं तो भारत के बजाय वियतनाम और सिंगापुर जैसे देश उनकी पहली पसंद है ना की भारत। दुनिया भर के देश भारत के साथ कारोबार तो करना चाहते है लेकिन भारत में उद्योग नहीं लगाना चाहते। मोदी सरकार अगर मेक इन इंडिया को सच में सफल बनाना चाहती हैं (जो की अभि तक पूरी तरह असफल योजना साबित हुआ हैं) तो सरकार का बड़े आर्थिक सुधार लाने पड़ेंगे, जैसे की अफसरशाही पर लगाव लगाना, पीएसयू और रेलवे का निजीकरण, इंफ्रस्ट्रक्चर में सुधार इत्यादि।